रविवार, 3 अप्रैल 2022

आलेख

 


एकांकी साहित्य का विकास और हिंदी के प्रमुख एकांकीकार

डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

सबसे पहले हम ‘एकांकी’ शब्द की बात करेंगे। ‘एक’ और ‘अंकी’ शब्दों के मेल से एकांकी बना है। इसका अर्थ होता है एक अंक का (नाटक)।

‘एकांकी’ नाटक ही है; परंतु अपनी वस्तुगत तथा रचनागत कुछ विशेषताओं के कारण साहित्य में इसकी गणना एक अलग विधा के रूप में होती है। उन विशेषताओं की चर्चा हम आगे करेंगे।

पहले ‘एकांकी’ के इतिहास या परंपरा की बात करते हैं। एकांकी की दो स्पष्ट परंपराएँ हमारे सामने हैं –

1.       भारतीय या संस्कृत की परंपरा तथा

2.       पाश्चात्य या अंग्रेजी की परंपरा।

नाटक संस्कृत साहित्य का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। संस्कृत में नाटक को रूपक कहा गया है। ‘रूपक’ का अर्थ होता है ‘रूप का आरोपण’। ‘रूपक’ में नट-नटी या अभिनेता-अभिनेत्री विविध प्रकार के चरित्रों या पात्रों के रूप-स्वरूप या व्यक्तित्व का अनुकरण करते हैं और उसे रंगमंच पर प्रस्तुत करते हैं।

संस्कृत साहित्य में रूपक के दस भेद बताए गए हैं। नाटक उनमें से एक भेद है। यानी नाटक रूपक का एक भेद है। रूपक के अन्य भेदों की तुलना में नाटक का प्रचार-प्रसार तथा लोकप्रियता सबसे अधिक होने के कारण आगे चलकर ‘नाटक’ शब्द का प्रयोग रूपक’ के अर्थ में होने लगा। नाटक रूपक का पर्याय बन गया।

‘रूपक’ के दस भेदों में भाण, प्रहसन, व्यायोग, वीथि और अंक एक अंक के रूपक हैं। इस दृष्टि से ये सभी एकांकी की कोटि में आते हैं। फिर भी, यह स्मरणीय है कि एकांकी नाम से नाटक का कोई भेद नहीं है या यों कहें कि एकांकी संस्कृत साहित्य की कोई विधा नहीं है।

अब अंग्रेजी साहित्य की बात करते हैं। अंग्रेजी साहित्य में ‘एकांकी’ की किसी प्रचीन परंपरा का उल्लेख नहीं मिलता। अंग्रेजी में एकांकी का जन्म रंगमंच की आवश्यकता के कारण हुआ। एकांकी के जन्म की एक बड़ी मनोरंजक घटना प्रसिद्ध है –

ब्रिटेन में रंगमंच की बड़ी जीवंत परंपरा रही है। वहाँ नाटक मनोरंजन का बहुत लोकप्रिय साधन रहा है। लोग रात के भोजन के बाद प्रेक्षागृहों में जाया करते थे। लेकिन सभी दर्शक ठीक समय पर या एक निश्चित समय पर  प्रेक्षागृह में नहीं पहुँचते थे। बहुत-से लोग रात को देर से खाना खाने की आदत की वजह से नाटक देखने देर से पहुँचते थे। इससे प्रेक्षागृह के मालिकों को बहुत असुविधा होती थी। एक तरफ तो वे देर से आने वाले प्रेक्षकों की वजह से नाटक जल्दी या समय से शुरू नहीं कर पाते थे और दूसरी तरफ उनकी समस्या यह होती थी कि जल्दी या समय से आने वाले प्रेक्षकों को सँभाला कैसे जाए? ऐसी स्थिति में प्रेक्षागृह के मालिकों को एक ऐसी चीज की आवश्यकता महसूस हुई, जिससे नाटक शुरू होने तक, समय से आने वाले प्रेक्षकों का मनोरंजन किया जा सके। इस समस्या के हल के लिए ‘कर्टेन रेजर’ यानी  पटोन्नायक या पटोत्थापक का आविष्कार हुआ।

यह पटोन्नायक एक छोटा-सा एकांकी होता था, जो परदा उठने से पहले खेला जाता था। इसमें कोई हास्य-प्रधान या रोमांचकारी अभिनय प्रस्तुत किया जाता था, जो एक प्रकार का घटिया प्रहसन होता था। उसका उद्देश्य मात्र दर्शकों का सस्ता मनोरंजन होता था। उसमें जीवन यथार्थ का स्वाभाविक चित्रण बिल्कुल नहीं होता था।

परंतु सन् 1903 में लंदन के वेस्ट एंड थियेटर में एक ऐसी घटना हुई, जिसने पटोन्नायक को एक सस्ते, थोथे और घटिया किस्म के प्रहसन के स्तर से उठाकर एकदम से साहित्य का महत्त्वपूर्ण अंग बना दिया।

हुआ यह कि उस वर्ष डब्ल्यू डब्ल्यू जेकब की कहानी ‘मंकीज पॉ‘ यानी ‘बंदर का पंजा’ पटोन्नायक के रूप में खेली गई। लूई पार्कर ने उसका नाट्य रूपांतर किया था। उस पटोन्नायक की प्रस्तुति ने दर्शकों को इतना प्रभावित किया कि जो नाटक वे देखने आए थे, उसे देखे बिना ही चले गए।

उस घटना के बाद रंगमंच के कर्ता-धर्ता घबरा गए और उन्होंने इस भय से पटोन्नायक को रंगमंच से निर्वासित कर दिया कि कहीं इस छोटे-से नाटक के चलते लंबे नाटकों की लोकप्रियता को धक्का न पहुँचे। परंतु यह घटना एकांकी के जन्म का कारण बन गई। एकांकी के लिए रंगमंच के बड़े भारी पर्दे, फर्नीचर अथवा वेशभूषा के दूसरे प्रसाधनों की आवश्यकता न थी। किसी सम्राट्, अमीर, नवाब अथवा ऐसे किसी दूसरे पात्र के बिना भी काम चल सकता था। ऐसे मजदूर या देहाती जो ज्यादा शिक्षित न थे, वे अपनी विविध समस्याओं का समाधान एकांकी के छोटे-से मंच पर पाने लगे। इस प्रकार एकांकी ब्रिटेन में मनोरंजन के साथ-साथ समाज सुधार का भी काम करने लगा; और साहित्य के एक कोने में अपने लिए एक सुदृढ़ स्थान बना लिया।

अब हम थोड़ी चर्चा एकांकी के स्वरूप की करते हैं। एकांकी का स्वरूप थोड़ा विवादास्पद है। वास्तव में एकांकी है तो नाटक ही - एक अंक का नाटक। फिर भी, साहित्य में वह एक स्वतंत्र विधा के रूप में प्रतिष्ठित है। प्रश्न यह उठता है कि नाटक और एकांकी में भेदक रेखा क्या है? ऐसा कौन-सा तत्त्व है, जो नाटक को एकांकी से अलग करता है? हिंदी के प्रसिद्ध एकांकीकार उपेंद्रनाथ अश्क का मानना है कि एकांकी का सबसे प्रमुख तत्त्व है उसका छोटा कैनवस। उनके अनुसार आधुनिक एकांकी दस मिनट से लेकर आधे घंटे या पैंतालीस मिनट तक का होता है। अगर अवधि बढ़ गई तो वह एकांकी नहीं रहता, नाटक बन जाता है। अश्कजी एक सवाल करते हैं कि यदि कोई नाटककार ऐसा एकांकी लिखे, जिसमें एक दृश्य अथवा एक अंक ही डेढ़-दो घंटे का हो, तो क्या उसे एकांकी कहा जाएगा? इसका उत्तर वे खुद ही देते हैं कि वह एकांकी नहीं, बल्कि एक अंक का पूरा नाटक होगा। यानी अवधि लंबी होने पर नाटक भी एक अंक का हो सकता है। वैसे सामान्यतः ऐसा होता नहीं है। सामान्यतः नाटक तीन से पाँच अंकों के तथा दस से बीस दृश्यों के होते हैं।

ज्यादातर एकांकियों में दृश्य भी एक ही होता है। वैसे तीन-तीन दृश्यों वाले एकांकी भी होते हैं।

इसके बाद एकांकी की कथा-वस्तु को ध्यान में रखकर बात करें, तो नाटक में जीवन का विस्तृत चित्रण होता है, जबकि एकांकी जीवन के किसी एक खंड, एक स्थिति या एक संवेदना को प्रस्तुत करता है। एकांकी में एक ही मूल कथानक होता है; और उस कथानक में प्रभाव की सघनता और तीव्रता आवश्यक होती है। एकांकी में संक्षिप्तता और एकीकरण का विशेष गुण होता है।

प्रसिद्ध एकांकी लेखक डॉ. रामकुमार वर्मा के मत से एकांकी में एक ही घटना होती है। वह घटना कुतूहल का संचार करते हुए चरम सीमा तक पहुँचती है। इसमें कोई अप्रधान प्रसंग नहीं रहता।

अब हम हिंदी एकांकी के उद्भव और विकास पर एक नजर डालते हैं।

हिंदी एकांकी के उद्भव को दो चरणों में विभाजित करके बात करना सुविधाजनक रहेगा। पहला चरण तो वह है, जिसकी शुरुआत भारतेंदु युग में होती है और दूसरा चरण 1929-30 से शुरू होता है।

आधुनिक संदर्भ में जिसे एकांकी या आधुनिक एकांकी कहा जाता है, उसकी कसौटी पर भारतेंदु युग के एकांकी को एकांकी नहीं माना जाता या नहीं माना जा सकता। भारतेंदु युग के एकांकी के बारे में उपेंद्रनाथ अश्क का मत है कि उस युग के एकांकी बड़े अपरिपक्व, आधुनिक एकांकी कला तत्त्वों से वंचित, मनोवैज्ञानिक विश्लेषण तथा यथार्थ के पुट से हीन थे। उनमें बाल-विवाह, वृद्ध-विवाह, विधवा-विलाप से संबंधित छोटे-छोटे विषयों को कहानी में न कहकर प्रहसन में कहने का प्रयास किया जाता था।

भारतेंदु युग में स्वयं भारतेंदु तथा उस युग के अन्य लेखकों ने संस्कृत नाट्य साहित्य से प्रेरणा लेकर एकांकी लिखने का प्रयास किया। उनमें कुछ अनूदित एकांकी तथा कुछ मौलिक एकांकी हैं। ‘धनंजय विलाप’, ‘प्रेमयोगिनी’, ‘पाखंड विडंब’, ‘अंधेर नगरी’, ‘विषस्य विषमौषधम्’, ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’ आदि एकांकी भारतेंदु ने लिखे।

भारतेंदु युग के अन्य लेखकों ने भी रूपकों और प्रहसनों के रूप में बड़ी संख्या में एकांकियों की रचना की। उनमें कुछ प्रमुख एकांकियों के नाम हैं –

1.       ‘तन मन धन गोसाईं जी के अर्पण’ - राधाचरण गोस्वामी।

2.       ‘कलियुग जनेऊ’ देवकीनंदन त्रिपाठी।

3.       ‘शिक्षादान’ तथा ‘बालविवाह’ - बालकृष्ण भट्ट।

4.       ‘दुखिनी बाला’, राधाकृष्णदास।

5.       ‘रेल का टिकट खेल’ – कार्तिकप्रसाद।

6.       ‘कलिकौतुक’ प्रतापनारायण मिश्र।

ये सभी एकांकी किसी एक समस्या के एक पक्ष को लेकर लिखे गए हैं। यह स्मरणीय है कि ये सभी एकांकी उस जमाने में नाटक के रूप में ही लिखे गए; क्योंकि उस समय एकांकी स्वतंत्र विधा के रूप में अस्तित्व में नहीं आया था। इसलिए तकनीकी दृष्टि से उस काल को एकांकी के उद्भव का काल नहीं कहा जा सकता।

द्विवेदी युग के एकांकी में थोड़ा बदलाव दिखाई देता है। उस युग के एकांकियों पर पाश्चात्य प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। परंतु विषय-वस्तु की दृष्टि से उस समय के एकांकी कुछ खास आगे नहीं बढ़ सके। भारतेंदु युग के एकांकियों में नांदी, मंगलाचरण, प्रस्तावना, भरतवाक्य, सूत्रधार, नट-नटी आदि की ज्यादा प्रवृत्ति दिखाई देती है, जो द्विवेदी युग में लगभग समाप्त हो जाती है।

द्विवेदी युग के प्रमुख एकांकीकारों में मंगलाप्रसाद विश्वकर्मा, सियारामशरण गुप्त, ब्रजलाल शास्त्री, सरयूप्रसाद बिंदु, शिवरामदास गुप्त, बदरीनाथ भट्ट, पांडे बेचन शर्मा उग्र, रामसिंह वर्मा आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

उसके बाद समय आता है आधुनिक एकांकी रचना का। जो एकांकी पूरी तरह से पाश्चात्य शैली में लिखे गए हैं, उन्हें आधुनिक एकांकी कहा गया है। सन् 1929-30 से आधुनिक एकांकी का समय विद्वानों ने माना है। परंतु हिंदी के प्रथम एकांकी के बारे में विद्वान् एकमत नहीं हैं। कुछ लोगों ने 1929 में प्रकाशित प्रसाद के ‘एक घूँट’ नामक एकांकी को हिंदी का प्रथम एकांकी माना है, तो कुछ लोगों ने 1930 में प्रकाशित डॉ. रामकुमार वर्मा के ‘बादल की मृत्यु’ नामक एकांकी को। इसी तरह कुछ लोग भुवनेश्वरप्रसाद के एकांकी संग्रह ‘कारवाँ’ से हिंदी एकांकी का आरंभ मानते हैं।

यह तो अपने-अपने दृष्टिकोण की बातें है। सबके अपने-अपने तर्क हैं। लेकिन यह तो सही है कि सन् 1929-30 से हिंदी एकांकी लेखन का आरंभ हुआ, जो धीरे-धीरे प्रौढ़ता की ओर अग्रसर हुआ। सन् 1935-40 के बीच यह भी एक बहस जोरों से चलती रही कि एकांकी को स्वतंत्र विधा माना जाए या नहीं। परंतु आगे चलकर यह बहस शांत पड़ गई और एकांकी को स्वतंत्र विधा मान लिया गया।

हिंदी एकांकी के विकास के क्रम में सन् 1938 में प्रकाशित ‘हंस’ के एकांकी विशेषांक का भी विशेष महत्त्व है। उसके संपादक श्रीपतराय ने हिंदी एकांकी लेखन को एक स्पष्ट दिशा प्रदान की।

सन् 1936 में दिल्ली में तथा 1938 में लखनऊ में आकाशवाणी की स्थापना के बाद हिंदी एकांकी को एक नई दिशा मिली। आकाशवाणी के अस्तित्व में आने के बाद रेडियो एकांकियों का युग शुरू हुआ।

रेडियो एकांकी ध्वनि आधारित होने से आगे के समय में एकांकी के स्पष्ट दो धाराएँ बन गईं –

1.       ध्वनि एकांकी और

2.       दृश्य एकांकी।

उस जमाने में कुछ एकांकीकार ऐसे भी थे, जो सिर्फ ध्वनि एकांकी ही लिखने लगे। कुछ पुराने एकांकीकार अपने दृश्य एकांकियों को ध्वनि एकांकी में रूपांतरित करके आकाशवाणी से प्रसारण योग्य बनने लगे थे।

सन् 1935 से 65 तक के काल को हिंदी एकांकी का उत्कर्ष काल कहा जा सकता है। इस काल में बहुत बड़े-बड़े एकांकीकार पैदा हुए, जो सिर्फ एकांकी लेखक के रूप में हिंदी साहित्य में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बनाए हुए हैं।

एकांकी आज भी लिखे जा रहे हैं। परंतु दृश्य एकांकियों का लेखन कम हो गया है और ध्वनि एकांकी ज्यादा लिखे जा रहे हैं; क्योंकि आकाशवाणी से उनका प्रसारण शीघ्र हो जाता है।

रामकुमार वर्मा, लक्ष्मीनारायण मिश्र, उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’, उदयशंकर भट्ट, सेठ गोविन्ददास, भुवनेश्वरप्रसाद मिश्र, जगदीशचन्द्र माथुर, भगवतीचरण वर्मा, गिरिजाकुमार माथुर, चंद्रगुप्त विद्यालंकार, रामवृक्ष बेनीपुरी, लक्ष्मीनारायण लाल, कुँवर चंद्रप्रकाश सिंह, विनोद रस्तोगी, आरसीप्रसाद सिंह, अमृतराय, विष्णु प्रभाकर, प्रभाकर माचवे, हरिकृष्ण प्रेमी आदि हिन्दी के प्रमुख एकांकीकार हैं।

इन एकांकीकारों ने विविध विषयों को अपने एकांकी लेखन का आधार बनाया। उन विषयों में ऐतिहासिक, पौराणिक, तथा सांस्कृतिक विषयों के साथ-साथ सामाजिक तथा नैतिक विषय प्रमुख हैं। मनोवैज्ञानिक, राजनीतिक तथा हास्य-व्यंग्य प्रधान विषयों पर भी बड़े अच्छे एकांकी लिखे गए।

पृथ्वीराज की आँखें (1937), रेशमी टाई (1939), चारुमित्रा (1943), कौमुदी महोत्सव (1949), ध्रुवतारिका (1950), दीपदान (1954), बापू (1956) डॉ. रामकुमार वर्मा के प्रसिद्ध एकांकी हैं।

श्री उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ मध्यवर्ग की सामाजिक कमजोरियों, रूढ़ियों, तथा जीर्ण-शीर्ण परंपराओं पर व्यंग्यात्मक शैली में एकांकी लिखने वाले बहुत सशक्त लेखक हैं। पापी (1937), लक्ष्मी का स्वागत (1938), मोहब्बत (1938), अधिकार का रक्षक (1938), विवाह के दिन (1939), स्वर्ग की झलक (1939), देवताओं की छाया में (1940), चरवाहे (1942), चिलमन (1942), खिड़की (1942), चुंबक (1942), सूखी डाली (1943), अंधी गली (1952) अश्क जी के प्रसिद्ध एकांकी हैं।

एक ही कब्र में, दस हजार, दुर्गा, नेता, स्त्री हृदय, नकली और असली, बड़े आदमी की मृत्यु, मुंशी अनोखेलाल, समस्या का अंत, कुमारसंभव, गिरती दीवारें, बीमार का इलाज, जीवन, मंदिर के द्वार पर, नये मेहमान, अपनी-अपनी खाट पर, गांधी का रामराज्य, एकला चलो रे, वन महोत्सव, मदन दहन आदि श्री उदयशंकर भट्ट के प्रमुख और प्रसिद्ध एकांकी हैं।

ऐसे ही भोर का तारा, कलिंग विजय, रीढ़ की हड्डी, मकड़ी का जाला, खंडहर, खिड़की की राह, घोंसले, कबूतरखाना, ओ मेरे सपने, बंदी आदि जगदीशचंद्र माथुर के प्रसिद्ध एकांकी हैं।



डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

40, साईं पार्क सोसाइटी

बाकरोल – 388315

जिला आनंद (गुजरात)

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